Tuesday, April 03, 2018

-----------***मेरे स्नेह पुष्प तू महका कर***-------

मेरी नयी कृति ...
समर्पित है 
मेरे  विद्यार्थियों को :

                                                 

मेरे स्नेह पुष्प तू महका कर।


शरद, शीत, वर्षा, ऋतु कोई
तू डाली डाली लहका कर
मेरे स्नेह पुष्प तू महका कर।।

घनघोर घटा, बादल काले

अंधड़ कितने भी आ जायें

तू बन बिजली बस चमका  कर

मेरे स्नेह पुष्प तू महका कर।।


कर्कश कलरव कटु वचन कुटिल

विचलित करने को तत्पर हैं

बस कोयल बन तू चहका कर

मेरे स्नेह पुष्प तू महका कर ।।


पथ भ्रष्ट हुए तो होने दे

मति भ्रष्ट हुई तो होने दे

सच की गलियों में भटका कर

मेरे स्नेह पुष्प तू महका कर ।।


बक, काग, श्वान, अल्पाहारी

गृह त्याग सके, बन अटल अचल

बलिदान-अग्नि  में दहका कर 

मेरे स्नेह पुष्प तू महका कर ।।


अज्ञान तिमिर है निगल रहा 

संसार अग्नि में झुलस रहा

ज्ञान-अमृत बन बरसा कर
मेरे स्नेह पुष्प तू महका कर 


मेरे स्नेह पुष्प तू महका कर।।




                                                                            —शिव नारायण वर्मा

**** *एक टीस-सी उठती है दिल में*****



अक्सर खो जाता हूँ अध-परिचित अतीत के  गलियारे में,

कभी ढूँढता हूँ तुम को, कभी सोचता हूँ खुद के बारे में


नहीं भूलती वह रात, नहीं भूलते वो लम्हें

घंटों बैठा रहा तुम्हारे पास, पर कुछ भी खबर नहीं थी तुम्हें


आँखे टिकी थीं तुम्हारी, आइ सी यू की सफ़ेद छत पर

क्या तुम भी उस वक्त खोये थे अतीत के धुंधले पथ पर?


आॅक्सीजन-मास्क से खर्राटे बाहर झाँक रहे थे,

पत्थर से पड़े थे तुम, हाथ मेरे काँप रहे थे


मशीनों की बीप-बीप मानो चीर रही थी सन्नाटों को

या फिर छुपाने में मशग़ूल थीं तुम्हारे उन खर्राटों को?



तुम्हारे बाँयें हाथ को बाँध रखा था अपने दायें हाथ में

माँ भी बिलख रही थी  बेसुध कहीं भैया के साथ में


ज़ुबाँ थी खामोश उसकी, होंठ न कुछ कह रहे थे

तड़पते अलफ़ाज़, उसकी आँखों से बह रहे थे


रह-रह कर मेरी हथेली को भींच लेता था तुम्हारा हाथ

बिल्कुल साफ़ नज़र आ रहा था मेरा बचपना और तुम्हारा साथ


मेरी हर खुशी तुम्हारी थी, मैं ही तुम्हारा सपना था

समूची दुनियाँ बेगानी थी, बस मैं ही तुम्हारा अपना था


निगाहें तुम्हारी ढूँढती थीं हर पल, हर वक़्त

कभी बन जाते तुम मोम से, तो कभी पत्थर जैसे सख़्त


कैसे भूलूँ वह दिन, जब मैं भी बीमार पड़ा था

कन्धे पर रख दौड़े थे अस्पताल, यमराज पीछे पड़ा था


जैसे कबूतर लड़ पड़ता है चील से चूज़ों को बचाने को

मौत से तुमने भी दो-दो हाथ कर लिये, मुझे वापस लाने को


पिता के विश्वास ने मौत पर वज्राघात कर डाला था

मौत को मौत आ गई और यमराज भी मरने वाला था


अब हालात बदले-से थे, और मेरी जगह तुम थे

मौत से लड़ाई मेरी थी, बेजान से पड़े तुम थे



तुम कभी अकेले ही यमराज से लड़ पड़े थे

और अब तो साथ मेरे भैया भी खड़े थे 


इस बार भी लडाई बड़ी तगड़ी थी

यमराज ने कई बार एड़ियाँ रगड़ी थी


पर ये क्या, मौत ने कैसा पलटवार किया?

हमारी सारी शक्ति को इक झटके में बेकार किया


तुम्हारी सारी हरकतें अब बिल्कुल थम गयी थीं

सिर्फ साँसें चलती थीं मानों नसें भी जम गयी थीं


अब हथियार डाल दिया था, क्यूंकि सब बेकार था

बस तुम्हारी आती-जाती साँसों के थमने  का इन्तज़ार था


बस एक सवाल कुरेदता है तब से 

तुम कैसे जीते थे? तुममें वो ताक़त थी कबसे?


हमारी नाकामी थी या मौत ने तुम्हारी जान ली थी?

हम क्या सचमुच हार गये थे, या बस यूँही  हार मान ली थी?



—शिव नारायण वर्मा